चोटी की पकड़–14
चार
राजा राजेंद्रप्रताप के कोचमैन मुसलमान हैं।
तीन बग्घियाँ और आठ घोड़े कलकत्ता में हैं, कुछ अधिक राजधानी में।
अली एक कोचमैन हैं।
इनके पिता लखनऊ में रहते थे, पूर्वज ईरान के रहनेवाले; बाद को शाह वाजिद अली के न रहने पर, मटियाबुर्ज़ चले आए। शाही खानदान के दरजी।
कपड़े अच्छे सीते थे।
अली आवारगी-पसंद थे, सुई नहीं चला सके, घोड़े की लगाम थामी।
हिंदू भी आदमी हैं, यह धर्मानुसार समझ में नहीं आया। हिंदू की आख्या गुलाम से बढ़कर नहीं की !
अँगरेजों से लड़ाई में मुसलमान हारे, इसकी वजह हिंदुओं की बेईमानी है, ऐसे विचार पाले रहे।
फिर भी खामोशी से काम करते हुए गुजर करते रहे यानी मालिकों से काम के अलावा दूसरी बात न की।
किसी हिंदू को कभी राज नहीं दिया, बल्कि लिया, और बड़ी सफाई से, भलमनसाहत के बहाने।
बंगालियों की बढ़ती से अली इस नतीजे पर आए कि बिना अंग्रेजी के चूल न बैठेगी।
दूर तक पहुँच न थी, पुलिस के मुसलमान दारोगा को राज देने और उनके इशारे पर काम करने-कराने लगे।
उन्हें एके की कुंजी मिली। जमींदारी हिंदुओं की, कारोबार हिंदुओं का, बड़ी-बड़ी नौकरियों पर हिंदू, वकील-बैरिस्टर डाक्टर-प्रोफेसर भी हिंदू।
यही हिंदू अंग्रेजों से मिले और मुसलमानों से दगा की। अली की आँख खुल गई।